किष्किंधाकाण्ड:भाग-एक
किष्किंधाकाण्ड में
हनुमान मिलन से बालि वध व सीता खोज की तैयारी तक के घटनाक्रम आते हैं। नीचे
किष्किंधाकाण्ड से जुड़े घटनाक्रमों की विषय सूची दी गई है।
• मंगलाचरण
• श्री रामजी से हनुमानजी का मिलना और श्री राम-सुग्रीव की मित्रता
• सुग्रीव का दुःख सुनाना, बालि वध की प्रतिज्ञा, श्री रामजी का मित्र लक्षण वर्णन
• सुग्रीव का वैराग्य
• श्री रामजी से हनुमानजी का मिलना और श्री राम-सुग्रीव की मित्रता
• सुग्रीव का दुःख सुनाना, बालि वध की प्रतिज्ञा, श्री रामजी का मित्र लक्षण वर्णन
• सुग्रीव का वैराग्य
मंगलाचरण
श्लोक :
श्लोक :
* कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ
शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।
मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ
सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥1॥
शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।
मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ
सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥1॥
भावार्थ:-कुन्दपुष्प और
नीलकमल के समान सुंदर गौर एवं श्यामवर्ण, अत्यंत बलवान्, विज्ञान के धाम,
शोभा संपन्न, श्रेष्ठ धनुर्धर, वेदों के द्वारा वन्दित, गौ एवं ब्राह्मणों
के समूह के प्रिय (अथवा प्रेमी), माया से मनुष्य रूप धारण किए हुए, श्रेष्ठ
धर्म के लिए कवचस्वरूप, सबके हितकारी, श्री सीताजी की खोज में लगे हुए,
पथिक रूप रघुकुल के श्रेष्ठ श्री रामजी और श्री लक्ष्मणजी दोनों भाई निश्चय
ही हमें भक्तिप्रद हों ॥1॥
* ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।
संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्॥2॥
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।
संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्॥2॥
भावार्थ:-वे सुकृती
(पुण्यात्मा पुरुष) धन्य हैं जो वेद रूपी समुद्र (के मथने) से उत्पन्न हुए
कलियुग के मल को सर्वथा नष्ट कर देने वाले, अविनाशी, भगवान श्री शंभु के
सुंदर एवं श्रेष्ठ मुख रूपी चंद्रमा में सदा शोभायमान, जन्म-मरण रूपी रोग
के औषध, सबको सुख देने वाले और श्री जानकीजी के जीवनस्वरूप श्री राम नाम
रूपी अमृत का निरंतर पान करते रहते हैं॥2॥
सोरठा :
मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खान अघ हानि कर।
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥
भावार्थ:-जहाँ श्री
शिव-पार्वती बसते हैं, उस काशी को मुक्ति की जन्मभूमि, ज्ञान की खान और
पापों का नाश करने वाली जानकर उसका सेवन क्यों न किया जाए?
* जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥
तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥
भावार्थ:-जिस भीषण हलाहल
विष से सब देवतागण जल रहे थे उसको जिन्होंने स्वयं पान कर लिया, रे मन्द
मन! तू उन शंकरजी को क्यों नहीं भजता? उनके समान कृपालु (और) कौन है?
श्री रामजी से हनुमानजी का मिलना और श्री राम-सुग्रीव की मित्रता
चौपाई :
चौपाई :
* आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया॥
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
फिर आगे चले। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। वहाँ (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों
सहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बल की सीमा श्री रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी
को आते देखकर-॥1॥
* अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना॥
धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई॥2॥
धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई॥2॥
भावार्थ:-सुग्रीव अत्यंत
भयभीत होकर बोले- हे हनुमान्! सुनो, ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान
हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी
यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझाकर कह देना॥2॥
* पठए बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला॥
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाइ पूछत अस भयऊ॥3॥
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाइ पूछत अस भयऊ॥3॥
भावार्थ:-यदि वे मन के
मलिन बालि के भेजे हुए हों तो मैं तुरंत ही इस पर्वत को छोड़कर भाग जाऊँ
(यह सुनकर) हनुमान्जी ब्राह्मण का रूप धरकर वहाँ गए और मस्तक नवाकर इस
प्रकार पूछने लगे-॥3॥
* को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4॥
भावार्थ:-हे वीर! साँवले
और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं, जो क्षत्रिय के रूप में वन में फिर रहे
हैं? हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण वन में
विचर रहे हैं?॥4॥
* मृदुल मनोहर सुंदर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता ॥
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥5॥
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥5॥
भावार्थ:-मन को हरण करने
वाले आपके सुंदर, कोमल अंग हैं और आप वन के दुःसह धूप और वायु को सह रहे
हैं क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश- इन तीन देवताओं में से कोई हैं या आप
दोनों नर और नारायण हैं॥5॥
दोहा :
* जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार॥1॥
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार॥1॥
भावार्थ:-अथवा आप जगत्
के मूल कारण और संपूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान् हैं, जिन्होंने
लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य
रूप में अवतार लिया है?॥1॥
चौपाई :
* कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए॥
नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई॥1॥
नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई॥1॥
भावार्थ:-(श्री
रामचंद्रजी ने कहा-) हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर
वन आए हैं। हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुंदर
सुकुमारी स्त्री थी॥1॥
* इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई॥2॥
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई॥2॥
भावार्थ:-यहाँ (वन में) राक्षस ने (मेरी पत्नी) जानकी को हर लिया। हे ब्राह्मण! हम उसे ही खोजते फिरते हैं। हमने तो अपना चरित्र कह
सुनाया। अब हे ब्राह्मण! अपनी कथा समझाकर कहिए ॥2॥
* प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥
पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥
भावार्थ:-प्रभु को
पहचानकर हनुमान्जी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े (उन्होंने साष्टांग
दंडवत् प्रणाम किया)। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं
किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर
वेष की रचना देख रहे हैं!॥3॥
* पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥4॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥4॥
भावार्थ:-फिर धीरज धर कर
स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर
हनुमान्जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था,
(वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी वानरी बुद्धि
इससे मैं तो आपको पहचान न सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे
पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥
* तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥5॥
भावार्थ:-मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूँ इसी से मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना ॥5॥
दोहा :
*एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥
भावार्थ:-एक तो मैं यों
ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ,
फिर हे दीनबंधु भगवान्! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया!॥2॥
चौपाई :
* जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥1॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥1॥
भावार्थ:-एहे नाथ!
यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न
पड़े (आप उसे न भूल जाएँ)। हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आप ही की
कृपा से निस्तार पा सकता है॥1॥
* ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥
सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥2॥
सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥2॥
भावार्थ:-उस पर हे
रघुवीर! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं
जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को
सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)॥2॥
* अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई॥
तब रघुपति उठाई उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा॥3॥
तब रघुपति उठाई उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा॥3॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर
हनुमान्जी अकुलाकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े, उन्होंने अपना असली शरीर
प्रकट कर दिया। उनके हृदय में प्रेम छा गया। तब श्री रघुनाथजी ने उन्हें
उठाकर हृदय से लगा लिया और अपने नेत्रों के जल से सींचकर शीतल किया॥3॥
* सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥4॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥4॥
भावार्थ:-(फिर कहा-) हे
कपि! सुनो, मन में ग्लानि मत मानना (मन छोटा न करना)। तुम मुझे लक्ष्मण से
भी दूने प्रिय हो। सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं (मेरे लिए न कोई प्रिय है न
अप्रिय) पर मुझको सेवक प्रिय है, क्योंकि वह अनन्यगति होता है (मुझे
छोड़कर उसको कोई दूसरा सहारा नहीं होता)॥4॥
दोहा :
* सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥3॥
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥3॥
भावार्थ:-और हे
हनुमान्! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और
यह चराचर (जड़-चेतन) जगत् मेरे स्वामी भगवान् का रूप है॥3॥
चौपाई :
* देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥
नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥
नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥
भावार्थ:-स्वामी को
अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवन कुमार हनुमान्जी के हृदय में हर्ष छा गया और
उनके सब दुःख जाते रहे। (उन्होंने कहा-) हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज
सुग्रीव रहते हैं, वह आपका दास है॥1॥
* तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥
सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥
सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥
भावार्थ:-हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए। वह सीताजी की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेगा॥2॥
* एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई॥
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा॥3॥
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा॥3॥
भावार्थ:-इस प्रकार सब
बातें समझाकर हनुमान्जी ने (श्री राम-लक्ष्मण) दोनों जनों को पीठ पर चढ़ा
लिया। जब सुग्रीव ने श्री रामचंद्रजी को देखा तो अपने जन्म को अत्यंत धन्य
समझा॥3॥
* सादर मिलेउ नाइ पद माथा। भेंटेउ अनुज सहित रघुनाथा॥
कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती॥4॥
कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती॥4॥
भावार्थ:-सुग्रीव चरणों
में मस्तक नवाकर आदर सहित मिले। श्री रघुनाथजी भी छोटे भाई सहित उनसे गले
लगकर मिले। सुग्रीव मन में इस प्रकार सोच रहे हैं कि हे विधाता! क्या ये
मुझसे प्रीति करेंगे?॥4॥
सुग्रीव का दुःख सुनाना, बालि वध की प्रतिज्ञा, श्री रामजी का मित्र लक्षण वर्णन
दोहा :
* तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ॥4॥
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ॥4॥
भावार्थ:-तब हनुमान्जी
ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके
प्रीति जोड़ दी (अर्थात् अग्नि की साक्षी देकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी
मैत्री करवा दी)॥4॥
चौपाई :
* कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित् सब भाषा॥
कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥1॥
कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥1॥
भावार्थ:-दोनों ने (हृदय
से) प्रीति की, कुछ भी अंतर नहीं रखा। तब लक्ष्मणजी ने श्री रामचंद्रजी का
सारा इतिहास कहा। सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर कहा- हे नाथ!
मिथिलेशकुमारी जानकीजी मिल जाएँगी॥1॥
* मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा॥
गगन पंथ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता॥2॥
गगन पंथ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता॥2॥
भावार्थ:-मैं एक बार
यहाँ मंत्रियों के साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था। तब मैंने पराए
(शत्रु) के वश में पड़ी बहुत विलाप करती हुई सीताजी को आकाश मार्ग से जाते
देखा था॥2॥
* राम राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी॥
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा॥3॥
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा॥3॥
भावार्थ:-हमें देखकर
उन्होंने 'राम! राम! हा राम!' पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था। श्री रामजी ने
उसे माँगा, तब सुग्रीव ने तुरंत ही दे दिया। वस्त्र को हृदय से लगाकर
रामचंद्रजी ने बहुत ही सोच किया॥3॥
* कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥4॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥4॥
भावार्थ:-सुग्रीव ने
कहा- हे रघुवीर! सुनिए। सोच छोड़ दीजिए और मन में धीरज लाइए। मैं सब प्रकार
से आपकी सेवा करूँगा, जिस उपाय से जानकीजी आकर आपको मिलें॥4॥
दोहा :
* सखा बचन सुनि हरषे कृपासिंधु बलसींव।
कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव॥5॥
कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव॥5॥
भावार्थ:-कृपा के समुद्र
और बल की सीमा श्री रामजी सखा सुग्रीव के वचन सुनकर हर्षित हुए। (और
बोले-) हे सुग्रीव! मुझे बताओ, तुम वन में किस कारण रहते हो?॥5॥
चौपाई :
* नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाइ। प्रीति रही कछु बरनि न जाई॥
मयसुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ॥1॥
मयसुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ॥1॥
भावार्थ:-(सुग्रीव ने
कहा-) हे नाथ! बालि और मैं दो भाई हैं, हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि
वर्णन नहीं की जा सकती। हे प्रभो! मय दानव का एक पुत्र था, उसका नाम मायावी
था। एक बार वह हमारे गाँव में आया॥1॥
* अर्ध राति पुर द्वार पुकारा। बाली रिपु बल सहै न पारा॥
धावा बालि देखि सो भागा। मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा॥2॥
धावा बालि देखि सो भागा। मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा॥2॥
भावार्थ:-उसने आधी रात
को नगर के फाटक पर आकर पुकारा (ललकारा)। बालि शत्रु के बल (ललकार) को सह
नहीं सका। वह दौड़ा, उसे देखकर मायावी भागा। मैं भी भाई के संग लगा चला
गया॥2॥
* गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई। तब बालीं मोहि कहा बुझाई॥
परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा॥3॥
परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा॥3॥
भावार्थ:-वह मायावी एक
पर्वत की गुफा में जा घुसा। तब बालि ने मुझे समझाकर कहा- तुम एक पखवाड़े
(पंद्रह दिन) तक मेरी बाट देखना। यदि मैं उतने दिनों में न आऊँ तो जान लेना
कि मैं मारा गया॥3॥
* मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी। निसरी रुधिर धार तहँ भारी॥
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई॥4॥
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई॥4॥
भावार्थ:-हे खरारि! मैं
वहाँ महीने भर तक रहा। वहाँ (उस गुफा में से) रक्त की बड़ी भारी धारा
निकली। तब (मैंने समझा कि) उसने बालि को मार डाला, अब आकर मुझे मारेगा,
इसलिए मैं वहाँ (गुफा के द्वार पर) एक शिला लगाकर भाग आया॥4॥
* मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं। दीन्हेउ मोहि राज बरिआईं॥
बाली ताहि मारि गृह आवा। देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा॥5॥
बाली ताहि मारि गृह आवा। देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा॥5॥
भावार्थ:-मंत्रियों ने
नगर को बिना स्वामी (राजा) का देखा, तो मुझको जबर्दस्ती राज्य दे दिया।
बालि उसे मारकर घर आ गया। मुझे (राजसिंहासन पर) देखकर उसने जी में भेद
बढ़ाया (बहुत ही विरोध माना)। (उसने समझा कि यह राज्य के लोभ से ही गुफा के
द्वार पर शिला दे आया था, जिससे मैं बाहर न निकल सकूँ और यहाँ आकर राजा बन
बैठा)॥5॥
* रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी। हरि लीन्हसि सर्बसु अरु नारी॥
ताकें भय रघुबीर कृपाला सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला॥6॥
ताकें भय रघुबीर कृपाला सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला॥6॥
भावार्थ:-उसने मुझे
शत्रु के समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी स्त्री को भी छीन
लिया। हे कृपालु रघुवीर! मैं उसके भय से समस्त लोकों में बेहाल होकर फिरता
रहा॥6॥
* इहाँ साप बस आवत नाहीं। तदपि सभीत रहउँ मन माहीं॥
सुन सेवक दुःख दीनदयाला फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला॥7॥
सुन सेवक दुःख दीनदयाला फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला॥7॥
भावार्थ:-वह शाप के कारण
यहाँ नहीं आता, तो भी मैं मन में भयभीत रहता हूँ। सेवक का दुःख सुनकर
दीनों पर दया करने वाले श्री रघुनाथजी की दोनों विशाल भुजाएँ फड़क उठीं॥7॥
दोहा :
* सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान॥6॥
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान॥6॥
भावार्थ:-(उन्होंने
कहा-) हे सुग्रीव! सुनो, मैं एक ही बाण से बालि को मार डालूँगा। ब्रह्मा और
रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगे॥6॥
चौपाई :
* जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥
भावार्थ:-जो लोग मित्र
के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने
पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु
(बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥
* जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥2॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥2॥
भावार्थ:-जिन्हें स्वभाव
से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से
मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर
अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥2॥
* देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥
भावार्थ:-देने-लेने में
मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय
तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण
(लक्षण) ये हैं॥3॥
* आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर िचत अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥
जाकर िचत अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥
भावार्थ:-जो सामने तो
बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता
रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे
कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥4॥
* सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥
भावार्थ:-मूर्ख सेवक,
कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने
वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से
तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥
सुग्रीव का वैराग्य
* कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा॥
दुंदुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥6॥
दुंदुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥6॥
भावार्थ:-सुग्रीव ने
कहा- हे रघुवीर! सुनिए, बालि महान् बलवान् और अत्यंत रणधीर है। फिर
सुग्रीव ने श्री रामजी को दुंदुभि राक्षस की हड्डियाँ व ताल के वृक्ष
दिखलाए। श्री रघुनाथजी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के (आसानी से) ढहा दिया।
* देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥
बार-बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥7॥
बार-बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥7॥
भावार्थ:-श्री रामजी का
अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये
बालि का वध अवश्य करेंगे। वे बार-बार चरणों में सिर नवाने लगे। प्रभु को
पहचानकर सुग्रीव मन में हर्षित हो रहे थे॥7॥
* उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला॥
सुख संपति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥8॥
सुख संपति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥8॥
भावार्थ:-जब ज्ञान
उत्पन्न हुआ तब वे ये वचन बोले कि हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा मन स्थिर
हो गया। सुख, संपत्ति, परिवार और बड़ाई (बड़प्पन) सबको त्यागकर मैं आपकी
सेवा ही करूँगा॥8॥
* ए सब राम भगति के बाधक। कहहिं संत तव पद अवराधक॥
सत्रु मित्र सुख, दुख जग माहीं। मायाकृत परमारथ नाहीं॥9॥
सत्रु मित्र सुख, दुख जग माहीं। मायाकृत परमारथ नाहीं॥9॥
भावार्थ:-क्योंकि आपके
चरणों की आराधना करने वाले संत कहते हैं कि ये सब (सुख-संपत्ति आदि) राम
भक्ति के विरोधी हैं। जगत् में जितने भी शत्रु-मित्र और सुख-दुःख (आदि
द्वंद्व) हैं, सब के सब मायारचित हैं, परमार्थतः (वास्तव में) नहीं हैं॥9॥
* बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा॥
सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई॥10॥
सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई॥10॥
भावार्थ:-हे श्री रामजी!
बालि तो मेरा परम हितकारी है, जिसकी कृपा से शोक का नाश करने वाले आप मुझे
मिले और जिसके साथ अब स्वप्न में भी लड़ाई हो तो जागने पर उसे समझकर मन
में संकोच होगा (कि स्वप्न में भी मैं उससे क्यों लड़ा)॥10॥
* अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥
सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी॥11॥
सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी॥11॥
भावार्थ:-हे प्रभो अब तो
इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूँ। सुग्रीव
की वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर (उसके क्षणिक वैराग्य को देखकर) हाथ में धनुष
धारण करने वाले श्री रामजी मुस्कुराकर बोले- ॥11॥
* जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई॥
नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥12॥
नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥12॥
भावार्थ:-तुमने जो कुछ
कहा है, वह सभी सत्य है, परंतु हे सखा! मेरा वचन मिथ्या नहीं होता
(अर्थात् बालि मारा जाएगा और तुम्हें राज्य मिलेगा)। (काकभुशुण्डिजी कहते
हैं कि-) हे पक्षियों के राजा गरुड़! नट (मदारी) के बंदर की तरह श्री रामजी
सबको नचाते हैं, वेद ऐसा कहते हैं॥12॥
* लै सुग्रीव संग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा॥13॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा॥13॥
भावार्थ:-तदनन्तर
सुग्रीव को साथ लेकर और हाथों में धनुष-बाण धारण करके श्री रघुनाथजी चले।
तब श्री रघुनाथजी ने सुग्रीव को बालि के पास भेजा। वह श्री रामजी का बल
पाकर बालि के निकट जाकर गरजा॥13॥
* सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥14॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥14॥
भावार्थ:-बालि सुनते ही
क्रोध में भरकर वेग से दौड़ा। उसकी स्त्री तारा ने चरण पकड़कर उसे समझाया
कि हे नाथ! सुनिए, सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बल की सीमा
हैं॥14॥
* कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा॥15॥
भावार्थ:-वे कोसलाधीश दशरथजी के पुत्र राम और लक्ष्मण संग्राम में काल को भी जीत सकते हैं॥15॥
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